बस्तर के सवाल-जवाब

राजीव रंजन प्रसाद

बस्तर

बात तब की है, जब पूर्वी-पाकिस्तान से लगातार शरणार्थी भारत की ओर आ रहे थे और उन्हें बसाया जाना तत्कालीन राजनीति के समक्ष एक विकराल समस्या थी. क्या यह विवशता थी, बाध्यता अथवा किसी दूरददृष्टि का अभाव कि तत्कालीन राजनीति ने लगभग अस्सी हजार वर्गमील में फैले उस आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र को इन शरणार्थियों की पूर्णकालिक बसाहट के लिये चुना, जो महानदी और गोदावरी के मध्य अवस्थित है और जहाँ विश्व की सबसे दुर्लभतम जनजातियाँ और अनन्यतम इतिहास संरक्षित था.

इस विशाल क्षेत्र में अविभाजित मध्यप्रदेश का बस्तर संभाग, आन्ध्रप्रदेश के कुछ पूर्वी और पश्चिमी हिस्से तथा ओडिशा के जयपोर और कालाहाण्डी जिले सम्मिलित थे. आदिवासी क्षेत्रों में विस्थापित आबादी के बसाहट की संकल्पना वर्ष 1956 में सर एस एन रामामूर्ति द्वारा की गयी थी, जो तत्कालीन योजना विभाग में परामर्शदाता थे. पश्चिम बंगाल को आगंतुक आबादी के विस्फोट से बचाने के लिये यह तात्कालिक तरीका बिना किसी सराहनीय योजना अथवा दूरदर्शिता के बनाया गया था.

इतिहास की किताबें खंगाल लीजिये, तत्कालीन समाजसेवियों और विचारकों के इस सम्बन्ध में आलेख या आन्दोलन तलाशिये कि किसी तरह का विरोध इस भयावह कदम के विरुद्ध देखा गया? स्वतंत्र भारत ने अपने आदिवासी और वन क्षेत्रों को दण्डकारण्य परियोजना के द्वारा वह दशा और दिशा दे दी थी, जो एक वृहद क्षेत्र की संस्कृति, वहाँ की साम्य स्थिति, वहाँ के जंगलों, वहाँ के आदिवासियों के लिये व्यापक परिप्रेक्ष्य में बहुत कुछ बदल देने वाली सिद्ध हुई. यद्यपि इस पुनर्वास योजना के पीछे का तर्क दण्डकारण्य के आदिवासी क्षेत्रों का विकास था, जिसकी झलक आज खोजे नहीं मिलती.

बस्तर के आदिवासी संदर्भों और जंगल को हमने जिस भी प्रशासकीय दृष्टिकोण से देखा है, उसमें व्यवहारिकता की बेहद कमी महसूस हुई है. विरोधाभास देखिये कि हमें एक अछूते और दुर्लभ वन क्षेत्र में ऐसी बसाहट की स्वीकृति प्रदान करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं हुई, जिसके पास न तो आजीविका थी, न रहने का ठिकाना.

यह तय था कि वे जंगलों को काट कर खेत बनायेंगे, यह तय था कि वे वनोत्पादों पर दबाव पैदा करेंगे, यह तय था कि वे परम्परागत कृषि उत्पादों, वानिकी और बागवानी तक के मायने बदल देंगे और यह भी निश्चित ही था कि आदिम जीवन शैली पर भी इससे भयावह कुठाराघात होगा. अफसोस की बात ये है कि आज तक भी बस्तर पर हमने थोपने वाली दृष्टि रखी है.

समय बदला, प्रशासक बदले, दृष्टिकोण बदला और जब बस्तर क्षेत्र में मुख्यधारा जैसी हवाओं के चलने का आभास हो रहा था तब फिर अबूझमाड़ को शेष दुनिया के लिये प्रतिबंधित घोषित कर एक नये तरह का विरोधाभास पैदा किया गया. हम जिस नक्सलवाद और जंगल के जनजातीय हक पर निरंतर चर्चा करते हैं संभवत: बस्तर में उसकी आधारशिला इसी प्रशासकीय निर्णय में छिपी है. क्या हम तय कर पाये हैं कि हमें विवस्त्र आदिवासी संरक्षित रखने हैं या उनके लिये किसी तरह का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण हमारे पास है?

नीति-निर्धारकों को लगता है कि आदिवासी स्वयं के प्रति संवेदनशील नहीं, अपनी परम्परा के प्रति लापरवाह है और उन्हें अपने जंगलों की समझ या कद्र नहीं है. शायद इसीलिये किसी को उनके क्षेत्रों में मुख्यधारा ही बसा देनी है तो कोई ताला-चाबी ले कर सभ्यताओं के बीच के दरवाजे-खिड़कियाँ बंद कर देने को आमदा है. बस्तर के संदर्भ में यह बात इतनी लचीली हो गयी है कि जल-जंगल और ज़मीन की लड़ाई को खालिस विचारधाराओं और बंदूक की जंग में उलझा भर दिया गया है लेकिन इन संदर्भों पर वास्तविकता में किसी के पास न कोई दृष्टिकोण है न ही समाधान.

क्या अंतर आया है, आज को दृष्टिगत रखते हुए विवेचना कीजिये; संदर्भ 9 मार्च 1969 का है जब कोण्डागाँव से तत्कालीन विधायक मानकूराम सोढ़ी जो कि बाद में कई बार बस्तर लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी रहे हैं; उन्होंने भोपाल विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर बोलते हुए कहा था कि “एक्साईज को हमारे बस्तर से 63 लाख की आमदनी होती है. मैं जानना चाहता हूँ कि इसमे से कितनी राशि बस्तर के विकास के लिये मिलती है? बस्तर जिले को लोगों को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ लिया है...... वन विभाग द्वारा जनता पर जो आरोप लगाया जा रहा है कि आदिवासी जंगल काट रहे हैं वह गलत है. यदि बस्तर के आदिवासियों में जंगल काटने की आदत होती तो आज वहाँ के जंगल भी साफ हो गये होते, जैसा कि धार और झाबुआ का हाल हुआ है. हमारे आदिवासी अपने जंगल को सम्पत्ति समझ कर उसकी रक्षा किये हुए हैं और इसी से आज शासन को पाँच करोड रुपये प्रतिवर्ष की आमदनी होती है.“

आर्थिक आंकडे आज के संदर्भ में कई गुणा अधिक हो गये हैं लेकिन परिस्थितियाँ जस की तस है. अर्थात जब हमें जरूरत हुई तो हमने विस्थापित बसा दिये, हमें जरूरत हुई तो अबूझमाडियों को मानव संग्रहालय की वस्तु बना दिया, हमें जरूरत हुई तो औने पौने दामों में तेन्दूपत्ते खरीदे, अपनी मर्जी की कीमत पर वनोत्पादों को हथियाया और साथ ही साथ ऐसे कानून भी बनाते गये जो जंगल पर ही आदिवासियों का वास्तविक हक न रहने दे.

तो क्या आदिवासी ही नहीं जानते कि उन्हें अपने जंगल के साथ क्या और कैसा व्यवहार करना चाहिये? इस विषय का उत्तर भी इतिहास में ही छिपा है. मुख्यधारा के लोग चिपको आन्दोलन से परिचित हैं क्योंकि यह आज की पीढी की नजरो से गुजरा हुआ सच है किंतु कितने लोग जानते हैं कि जिन आदिवासियों पर हम पिछड़ा और विचारशून्य होने का लेबल चस्पा करते हैं, उन्होंने अठारहवीं सदी में चिपको से भी बड़ा पर्यावरण आन्दोलन खड़ा किया?

बस्तर अर्थात नक्सलवादी जानने वाली आज की पीढी यदि यहाँ के अतीत के कुछ पन्ने पलटे तो चमत्कृत हो सकती है. कोई विद्रोह (1859) भारत के पहले ज्ञात पर्यावरण आन्दोलनों में से एक है जिसका सूत्रवाक्य था- ”एक पेड़ के बदले में एक सिर””.

बस्तर में अंग्रेजों ने सागवान के जंगलो को काटने के लिये आरा मशीनें लगवा दी थी, जिसका ठेका निजाम हैदराबाद के लोगों को दिया गया था. अपने जंगल खो देने के अहसास ने आदिम समाज को एक जुट कर दिया. इस विद्रोह का सूत्रपात भेज्जी, फोतकेल तथा कोतापल्ली के आदिवासियों ने मिल कर किया था. यह तय किया गया कि अब जंगल और नहीं कटने दिये जायेंगे.

माझियों ने एक राय हो कर फैसला किया कि “एक पेड़ के पीछे एक सिर होगा” और यही संदेश उन्होंने अपने राजा, अंग्रेज अधिकारियों और ठेकेदारों को भी भिजवा दिया. अंग्रेजों ने निर्देश जारी किये कि जंगल की कटाई करने वाले मजदूरों के साथ हथियारबंद सिपाही भेजे जायें. विद्रोही भी हथियार का जवाब हथियार से देने के लिये तैयार थे. अगली सुबह बंदूक के साये में आरा मशीनों की घरघराहट जैसे ही आरंभ हुई, विद्रोही अनियंत्रित हो गये.

हजारों सिर कुर्बानी देने के लिये तत्पर थे. इससे पहले कि मशीनें सागवान का सीना चीरती, अनेक पेड़ों के तनों पर चेतावनी से भरे वाण बिंध गये. आरा चलाने वाले, निजाम के दोनों कारीगरों के सिर धडों पर नहीं रहे. लकड़ी की टालों को आग के हवाले कर दिया गया. इसके बाद निजाम के सारे आदमी भाग निकले, यहाँ तक ठेकेदार को भी छुप जाना पड़ा (ग्लसफर्ड, 1862). 

समूचे दक्षिण बस्तर में ‘किसी आन्दोलन’ का प्रभाव था. एक भी पेड़ कटता तो उसके एवज में जान ले ली जाती. स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि ब्रिटिश प्रशासक ग्लस्फर्ड को सेना ले कर दक्षिण बस्तर आना पड़ा. एक नेता या एक समूह द्वारा संचालित विद्रोह को तो अंग्रेज आसानी से मसल दिया करते थे, यह नयी परिस्थिति थी. जुग्गाराजू, जुम्माराजू, बापीराजू, नागुलदोरा, कुन्यादोरा, पामभोई, रामसायबहादुर....अनेकों नाम ग्लस्फर्ड के सम्मुख रखे गये. 

हार कर ब्रिटिश सेना लौटा ली गयी. निजाम के आदमियों को दिये गये सभी ठेके निरस्त कर दिये गये. ‘किसी’ आन्दोलन ने अपनी सफलता का इतिहास रच दिया था.

जंगल को अपना स्वाभाविक हक मानने वाले आदिवासियों के साथ कानून की समझ का न होना उनका क्या हश्र कर सकता है इसके लिये बस्तर के बहुचर्चित मालिक मकबूजा प्रकरण को समझना आवश्यक है. राजतंत्र की अवस्था में बस्तर में सागवान वृक्ष चाहे किसी भी आदिवासी की निजी भूमि में अवस्थित हो, वह राजा अथवा राज्य की ही सम्पत्ति माना जाता था तथा राजा झाड़ सम्बोधन से विभूषित था. 

बस्तर के रियासती काल, सन 1940 में कानून लागू हुआ था कि आदिवासी की ज़मीन गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता. इस कानून में कई “अगर” और “मगर” लगा दिये गये. “अगर” किसी आदिवासी को शादी व्याह जैसे जरूरी काम के लिये पैसा चाहिये तो वह अपनी ज़मीन गैर आदिवासी को बेच सकता है “मगर” उसे राज्य के सक्षम अधिकारी से लिखित अनुमति प्राप्त करनी होगी; यानी ज़मीन की बिक्री गैर-आदिवासियों को यथावत जारी थी. 

आजादी के बाद नयी सरकार ने नया कानून बनाया जिसे ‘सेंट्रल प्रॉविंसेज स्टेट्स लैंड एण्ड ट्रेनर ऑर्डर -1949’ कहा गया, जिसमें काश्तकारों को उनकी अधिग्रहीत भूमि पर अधिकार हस्तांतरित कर दिये गये. इस आदेश ने भी किसानों को उनकी भूमि पर लगे वृक्षों का स्वामित्व नहीं दिया था अत: कमोबेश यथास्थिति बनी रही, चूंकि पुराने कानून में भी पेड़ शासन की सम्पत्ति ही माने गये थे. सी.पी एवं बरार से पृथक हो कर मध्यप्रदेश राज्य बनने के बाद नयी सरकार ने पुन: नयी सक्रियता दिखाई और ‘भूराजस्व संहिता कानून-1955’ के तहत भू-स्वामियों को उनकी भूमि पर खड़े वृक्षों पर भी स्वामित्व जिसे मालिक-मकबूजा हक कहा गया, हासिल हो गया.

इसका अर्थ था कि जिसकी ज़मीन पर सागवान का पेड़, उस पर हक उसी व्यक्ति का. उपरी तौर पर देखने से यही लगता था कि सरकार ने आदिवासियों का हित किया है लेकिन यह अदूरदर्शी कानून सिद्ध होने लगा. सागवान के लुटेरे भारत के कोने-कोने से बस्तर की ओर दौड़ पड़े. कौड़ियों के मोल सागवान के जंगल साफ होने लगे. कभी शराब की एक बोतल के दाम तो कभी पाँच से पंद्रह रुपये के बीच पेड़ और जमीनों के पट्टे बेचे जाते रहे. इसमें आदिवासियों की क्या स्थिति हुई, इसकी एक बानगी के लिये 6 जनवरी 1974 के दण्डकारण्य समाचार में प्रकाशित एक खबर का शीर्षक पढ़ें- “माड़िया ने जीप खरीदी.” 

तत्कालीन दंतेवाडा तहसील के मैलावाड़ा गाँव के आदिवासी हुंगा ने मालिक मकबूजा की लकड़ी की बिक्री से यह जीप खरीदी थी. आनन-फानन में सागवान के पेड़ खरीदे और काटे जा रहे थे तथा आदिवासियों को यह समझ ही नहीं आ रहा था कि त्वरित रूप से प्राप्त इस बडी राशि का क्या किया जाये. समय के साथ फिर हुंगा की जीप भी बिक गयी, पैसा भी नदारद हुआ और अब वह भूमिहीन और वृक्ष विहीन था अर्थात पूरी तरह बरबाद हो गया था.

बस्तर में अनेक क्षेत्रों में वह कानून चलता है, जिसे संसद पारित करती है और कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जिन पर माओवादी काबिज हैं. इन अवस्थाओं में जहाँ नागरिक अधिकार ही नहीं प्रतीत होते, वहाँ वन आधिकार कानूनों के वास्तविक क्रियान्वयन पर चर्चा आधी अधूरी ही रहेगी. 

वर्ष 2004-05 के आसपास जब आन्ध्र प्रदेश में माओवादियों का निर्णायक दमन हुआ तब उन्हें बस्तर और खास कर अबूझमाड़ ऐसी जगह प्रतीत हुई, जहाँ वे अपना आधार क्षेत्र बना कर जन, जंगल और ज़मीन की आड़ में सुरक्षा प्राप्त कर सकते थे. यह क्षेत्र हमारी ही अव्यवहारिक नीति के कारण अछूता छोड़ दिया गया था अत: बिना किसी संघर्ष के माओवादियों की आश्रय स्थली बन गया. 

कुछ कथित विचारकों ने विश्व भर में यह जुमला उछाल कर कि आदिवासी ही माओआदी हैं वस्तुत: सबसे अधिक नुकसान उनका ही किया है, जिस जन की जंगल और ज़मीन थी. नक्सली आतंकवाद और सलवा जुडुम के बीच पिस कर बस्तर की बहुत बडी आबादी आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा के कुछ क्षेत्रों में पलायन करती देखी गयी है. 

दुर्भाग्यवश इस समय सारा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने की कगार पर खड़ा है. बस्तर में तीस से अधिक आदिवासी जनजातियों के बीच मुखिया-मांझी व्यवस्था के कारण एक ऐसा तार उपस्थित था, जो जंगल के भीतर से मुख्य धारा की राजनीति तक सीधे पहुँच जाता था. अब माओवादियो ने चूंकि इस तंत्र को आत्मरक्षा के लिये नष्ट कर दिया है अत: स्पष्ट सामाजिक विभाजन महसूस किया जा सकता है. सीधे व्यक्ति से जुड़ने की क्षमता रखने वाला वन-अधिकार कानून शांतिकाल में आदिवासी पुनर्स्थापन की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध होगा इसमें संदेह नहीं है किंतु युद्धरत बस्तर के अरण्य में क्या और कितना बचा रहेगा इस पर अभी यकीन पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है.

क्या यूपीए से नाराज़ हैं मुसलमान?

भारतीय मुसलमान
साल 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में अब केवल कुछ ही महीने रह गए हैं. प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने तो प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार की भी घोषणा कर दी है.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के उम्मीदवार हैं जबकि संभावना जताई जा रही है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं. हालांकि कांग्रेस ने अभी तक इस बारे में कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की है.
भारत में बात जब चुनाव की हो तो क्लिक करेंमुसलमान मतदाता के बारे में अनायास ही ध्यान चला जाता है.
भारत में मुसलमान लगभग 13-14 फ़ीसदी हैं और लोकसभा की कई सीटों पर चुनावी फ़ैसलों को सीधे प्रभावित करते हैं. दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने की गंभीर दावेदारी करने वाली कोई भी पार्टी शायद उनको नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहेगी.
इसलिए ये बहुत अहम मुद्दा है कि भारतीय मुसलमान इस समय क्या सोच रहे हैं और आने वाले चुनावों में उनका रुख़ क्या होगा?
बीबीसी की इस विशेष श्रृंखला में इसी को तलाशने की कोशिश होगी. लेकिन पहली कड़ी में जानने की कोशिश करते हैं कि मुसलमान फ़िलहाल केंद्र की यूपीए सरकार के बारे में क्या सोचते हैं?
क्लिक करेंमुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति जानने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस सच्चर की अध्यक्षता में बनी सच्चर कमेटी ने साल 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी.
उस रिपोर्ट में कहा गया था कि विकास के सभी पैमानों पर मुसलमानों की हालत देश में बेहद पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लगभग बराबर है.
केंद्र की तत्कालीन सरकार यूपीए-1 ने इसे फ़ौरन स्वीकार तो कर लिया लेकिन छह-सात साल के गुज़र जाने के बाद जितनी भी क्लिक करेंरिपोर्ट आई हैं उन सभी का मानना है कि मुसलमानों की हालत में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है.

योजनाओं का लाभ नहीं

सितंबर 2013 में काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवेलपमेंट (सीएसडी) की तरफ़ से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं का ज़्यादातर लाभ या तो बहुसंख्यक समाज के लोग या ग़ैर-मुसलमान अल्पसंख्यक समाज के लोग उठा रहे हैं.
भारतीय मुसलमान
सीएसडी की रिपोर्ट के मुताबिक़ 25 फ़ीसदी से अधिक मुसलमान जनसंख्या वाले देश के जिन 90 ज़िलों में एमएसडीपी कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, उन इलाक़ों में केवल 30 फ़ीसदी मुसलमानों तक इन योजनाओं का लाभ पहुंचा.
बात सिर्फ़ सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों की नहीं है, दूसरे कई मामलों में भी मुसलमानों को लगता है कि यूपीए सरकार ने बीते नौ सालों में उनके लिए कुछ ख़ास नहीं किया है.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन कहती हैं कि सरकार ने वादे तो बहुत किए लेकिन उनको पूरा नहीं कर सकी.
सच्चर कमेटी का हिस्सा रहे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के ही प्रोफ़ेसर अमिताभ कुंडु की भी राय कुछ हद तक यही है. वह कहते हैं, ''पिछले 10 वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में तो मुसलमानों की हालत कुछ बेहतर हुई है लेकिन शहरों में उनकी हालत में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है.''
प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन
प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन के मुताबिक यूपीए सरकार की नीयत ठीक नहीं है.
इसके क्या कारण हैं, ये पूछे जाने पर प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन कहती हैं, ''मुझे तो लगता है कि सरकार की नीयत ही ठीक नहीं है. कांग्रेस को ख़तरा रहता है कि अगर वो मुसलमानों के लिए कुछ करेगी तो उस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लग जाएंगे.''
जमीयतुल-उलमा-ए-हिंद के महासचिव महमूद मदनी कहते हैं कि यूपीए सरकार से मुसलमानों को दो नुक़सान हुए हैं.

इच्छा शक्ति

मदनी कहते हैं, ''एक नुक़सान तो ये हुआ कि काम नहीं किया. उससे बड़ा नुक़सान ये किया कि कामों का ऐलान करके मुसलमानों के तुष्टिकरण का इल्ज़ाम अपने ऊपर ले लिया और मुसलमानों का कोई फ़ायदा भी नहीं किया.''
मदनी भी इसके लिए लाल फ़ीताशाही और सरकार में इच्छा शक्ति की कमी को ज़िम्मेदार मानते हैं. उनके अनुसार अगर इच्छा शक्ति हो तो लाल फ़ीताशाही को कंट्रोल करना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है.
प्रोफ़ेसर कुंडु भी मानते हैं कि सामाजिक व्यवस्था में जो पूर्वाग्रह हैं वे नौकरशाही को भी प्रभावित करते हैं.
भारतीय जनता पार्टी तो सच्चर कमेटी के गठन की ही विरोधी रही है.
पार्टी के प्रवक्ता तरुण विजय कहते हैं, ''सच्चर कमेटी तो फ़िरक़ापरस्ती का पुलिंदा है. मुसलमानों को भ्रम में डालने के लिए वो कमेटी बनाई गई थी. हम उसको कोई महत्व नहीं देते हैं.''
सच्चर कमेटी को भले ही तरुण विजय ख़ारिज करते हों लेकिन मुसलमानों के पिछड़ेपन को तो वह भी स्वीकार करते हैं और इसके लिए वह भी कांग्रेस को ही ज़िम्मेदार मानते हैं.
केंद्रीय मंत्री के रहमान ख़ान
केंद्रीय मंत्री रहमान ख़ान के अनुसार सरकार ने ज़्यादातर वादे पूरे किए हैं.
तरुण विजय कहते हैं, ''कांग्रेस ने अब तक उनको (मुसलमानों को) भेड़-बकरियों की तरह हांका जाने वाला समाज समझा जिसके कुछ नेताओं को पद और जागीरें दे दीं और फिर दूसरों का डर दिखाते हैं कि ये तुमको खा जाएंगे.''
लेकिन इन सभी आरोपों को ख़ारिज करते हुए अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री के रहमान ख़ान कहते हैं, ''सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने कुल 72 सिफ़ारिशें चुनी थीं. उनमें से तीन को नहीं माना गया जो कुछ ख़ास नहीं थी. बाक़ी 69 में से सरकार ने 66 को लागू कर दिया है और केवल तीन सिफ़ारिशों पर अमल किया जाना बाक़ी है.''
रहमान ख़ान के इन दावों पर प्रोफ़ेसर कुंडु कहते हैं कि ये तो बिल्कुल सरकारी बही खातों में जैसे निशान लगाते हैं उसी तरह से हुआ.
अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जा रही योजनाओं की जांच के लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय ने प्रोफ़ेसर कुंडु की अध्यक्षता में एक कमेटी का इसी साल गठन किया है. उम्मीद है कि उसकी रिपोर्ट साल 2014 के शुरुआती महीनों में आएगी.

'हर चीज़ सरकार करे'

मुसलमानों की मौजूदा हालत के लिए रहमान ख़ान ख़ुद मुसलमानों को ज़िम्मेदार मानते हुए कहते हैं, ''मुसलमानों की सबसे बड़ी दुश्वारी ये है कि हम समझते हैं कि हर चीज़ हुकुमत करेगी. हुकुमत को दूसरी क़ौमें फ़ैसीलिटेटर (सहायक) मानती हैं प्रोवाइडर (पोषणकर्ता) नहीं, लेकिन मुसलमान ये समझता है कि हर चीज़ सरकार करे. सरकार रोड तो बना सकती है लेकिन कार मुहैया नहीं करा सकती. क़ौम में ये बदलाव आना चाहिए.''
लेकिन प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन का मानना है कि मुसलमानों की मौजूदा स्थिति और सरकारों की अनदेखी के पीछे एक ख़ास वजह है.
मुज़फ़्फ़रनगर कैम्प
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के तीन महीने बाद भी हज़ारों मुसलमान राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं.
उनके अनुसार सरकार में वैचारिक स्तर पर अभी तक ये साफ़ नहीं है कि अल्पसंख्यकों पर केंद्रित योजनाएं होनी चाहिए या नहीं.

'आम सहमति की कमी'

प्रोफ़ेसर हसन के अनुसार, ''सबसे बड़ा मसला ये है कि मुसलमानों के विकास को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई आम सहमति नहीं है. दलितों के मामले में ये आम सहमति बन चुकी है.''
उनके मुताबिक़ यही वजह है कि मुसलमानों के मामले में 'धर्मनिरपेक्ष' पार्टियां भी एक क़दम आगे बढ़ाती हैं फिर रुक जाती हैं.
प्रोफ़ेसर कुंडु भी लगभग सहमति जताते हुए कहते हैं, ''मेरा ऐसा ख़्याल है कि एससी-एसटी के मामले में राजनीति नहीं होती है, जबकि मुसलमानों के मुद्दों पर अधिक राजनीति होती है.''
लेकिन ऐसा नहीं है कि सच्चर कमेटी से कुछ लाभ नहीं हुआ.

प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन कहती हैं कि सच्चर कमेटी के बाद सरकार की नीति में एक बदलाव तो हुआ है. उनके अनुसार, ''नीतियों के स्तर पर जो रूकावटें थीं वो तो हट गईं हैं, दरवाज़े थोड़े से खुले हैं और अब कोई भी धर्मनिरपेक्ष सरकार इसको उलट नहीं सकती.'

राहत शिविरों का सच

अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दंगा पीड़ित और उनके लिए स्थापित किए गए राहत शिविर लगातार खबरों का हिस्सा बने हुए हैं तो इसके लिए अखिलेश सरकार किसी अन्य को दोष नहीं दे सकती। मुजफ्फरनगर और शामली के राहत शिविरों में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत से इन्कार कर रही राज्य सरकार जिस तरह यह मानने के लिए विवश हुई कि पिछले ढाई माह में 34 बच्चों की मौत हुई है उससे यह साफ हो जाता है कि पहले सच्चाई को छिपाने की कोशिश की जा रही थी। जब इन राहत शिविरों में करीब 50 बच्चों की मौत की बात सामने आई थी तो राज्य सरकार ने न केवल सिरे से इन्कार किया था, बल्कि इन शिविरों की दुर्दशा का सवाल उठाने वालों को झिड़का भी था। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आखिरकार मेरठ के मंडलायुक्त के नेतृत्व वाली समिति ने 34 बच्चों की मौत की बात मान ली, क्योंकि उसने इन मौतों के कारणों का उल्लेख करने की जहमत नहीं उठाई है। समिति का जोर यह साबित करने पर है कि इन मौतों के लिए किसी तरह अव्यवस्था जिम्मेदार नहीं है। समिति ने बच्चों की मौत ठंड की वजह से होने से साफ इन्कार किया है। पता नहीं सच क्या है, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जिस तरह यह लग रहा है कि बच्चों की मौत ठंड से बचाव के पर्याप्त प्रबंध न होने से भी हुई उससे दूसरी ही तस्वीर उभर रही है। राज्य सरकार भले ही यह दावा करे कि राहत शिविरों में हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं, लेकिन वहां के हालात इन दावों की चुगली करते हैं।
राहत शिविरों में रह रहे लोग लगातार यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। उनकी नई शिकायत यह है कि उन्हें पर्याप्त मुआवजा दिए बगैर शिविर खाली करने को कहा जा रहा है। यह विचित्र स्थिति है कि राज्य सरकार जब सब कुछ दुरुस्त बता रही है तब राहत शिविरों में रह रहे लोगों की शिकायतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। पिछले दिनों सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने जिस तरह इन शिविरों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दौरे के बाद यह कहा कि अब वहां केवल कांग्रेस और भाजपा के समर्थक ही रह रहे हैं उससे उन्होंने मुसीबत मोल लेने का ही काम किया है। इस पर आश्चर्य नहीं कि कोई भी उनके इस बयान से सहमत नजर नहीं आ रहा है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि यह सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोग किसी राजनीतिक साजिश के तहत राहत शिविरों में बने रहना चाहते हैं। यदि एक क्षण के लिए इसे मान भी लिया जाए तो इसके लिए राज्य सरकार ही जवाबदेह है। बेहतर हो कि सपा के नेता यह समझें कि राहत शिविरों में व्याप्त अव्यवस्था की अनदेखी करने से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसी तरह इन शिविरों में रह रहे लोगों को पर्याप्त मदद दिए बगैर हटाने से भी बात बनने वाली नहीं है। यह चिंताजनक है कि उत्तार प्रदेश सरकार पहले सांप्रदायिक हिंसा रोक पाने में बुरी तरह नाकाम रही और अब इस हिंसा से पीड़ितों को मदद देने में भी असफल साबित होती दिख रही है। सबसे खराब बात यह है कि वह अपनी असफलता का दोष अपने राजनीतिक विरोधियों पर मढ़ना चाहती है।